सोमवार, 19 मई 2008

हकीकत नही दिखती

शून्य पटल की सोच मेरी
अब कपोलों मे नही बसती
खुली आंखो से अब मुझको
दुनिया की हकीकत नही दिखती
बंद कर लेता आँखे मै
जब किसीकी अस्मत लुटे
विस्थापन का दर्द झेलते
लोगो का जब घर लुटे
न देखता हू मै उनको जो
खाली पेट रात जगे
अकुलाते ,चित्कारते बच्चे
जब भूखी माँ ने थे जने
उभरी हड्डी ,पिचके गाल
भिखारी से दिखते है किसान
न देखता हू मैं अब बाहर
अपने ऑफिस के गलियारों से
दंगो की आड़ मे जले उन लोगो के घर वालो को
कुछ बंजर भूमि ,भूखे लोग बस खड़े है चोराहो पर
भागती सड़क ,चमकते माल
यही दिखते है सुबहो शाम ,.बाकि हकीकत नही दिखती

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